प्रेम की कशिश भी कितनी बदल गयी, ना नजरों का वो मिलना रहना, ना नजरों के मिलते ही मुस्कुराना, ना मुस्कुरा कर चेहरा घूमा लजाना, कहने को तो बहुत कुछ है, पर मिलने पर कहने से घबराना, वो भी प्रीत का एक ज़माना था, वो पहले प्रेम की अभिव्यक्ति की, अनुभूति खो गयी है....
महीनों तक नजरों का नजरों से मिलना, और आँखों ही आँखों में सब कह देना, सखाओं और सखियों के बीच चर्चे होना, बिन कुछ बात हुए ही रिश्ते-नातों का संबोधन होना, स्नेहीयों से चाहत सुनिश्चित होने पर, प्रेम प्रकटीकरण का निश्चय करना, कौन पहले कहे इसमे भी महीनों लगाना, प्रेम प्रकटीकरण में, वो हयायी खो गयी है....
नजरे पहली बार मिली जिस पल, उसी पल ही आँखों में तेरी देख लिया सारा जहां, उन नजरों से नजर ना मिल जाये आता चैन कहाँ, जब से हुआ ये एहसास तब से बस ये ही है खास, होठों पर जब मुस्कान खिलती है लाली लिए, लगता है जैसे सूरज की किरणें उषा को छेड़ती, इसी होठों से उषा मे आती किरण, और गोधूलि मे जाती किरण देखने की है अभिलाषा, बन राही तेरे गेसुओं के छाँव में दोपहर बिताने की है आस, जितना मेरे लिए है तूँ, क्या तेरे लिए हूँ मैं भी खास, प्रेम याचना की ऐसे भाव समेटे, रुबाई वाली चिट्ठी खो गयी है.....
महीनों के कशिश, अंतर्मन की कशमकश, और प्रस्ताव के स्वीकृति के, आशा मे दिए जाने वाले वो पहले प्रेम, की चिट्ठी खो गयी है....
वो चिट्ठी खो गयी है...
✍️ विवेक कुमार शुक्ला ✍️
अगले भाग में स्वीकृति वाली चिट्ठी खोने का एहसास... अपने सुझावों से ज़रूर अवगत कराएं।
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