तब रोज-रोज बाते ना होती थी, पर ख्वाबों में मुलाकातें होती थी, तुमको क्या कहना था? मुझसे क्या सुनना था? इसकी एहसासें होती थी।
हाथ लंबे वक़्त बाद लगती थी, ख्यालों को समेटे, भावों को संजोए, जब भी कोई चिट्ठी आती थी, लबों पे लाली खिल जाती थी।
बाबुजी से कितना कहना, मैया को क्या सुनाना है? मुझ बिन दिन रात कैसे कटते? बच्चों को क्या बतलाना है? भाई - बहन को क्या समझाना? हर बात अलग - अलग, एहसास अलग - अलग, हर रिश्ते के सलीके समेटे होती। जब भी कोई चिट्ठी आती थी, लबों पे लाली खिल जाती थी।
सवालों को सोचकर जवाबों का लिखना, जवाबों को सोचकर सवालों का लिखना, भले - बुरे हर खबरों को लिखना, फिर फ़िक्र ना करना ये संग में जोड़ना, प्रत्युत्तर में लिखे जाने वाले ख़त को किनारे कर, तुम्हारे फ़िक्र में ख़ुद को ढूंढना, एक ज़वाब में कितनी रातें कट जाती थी। जब भी कोई चिट्ठी आती थी, लबों पे लाली खिल जाती थी।
अब रोज-रोज बातें हो जाती है, पर ख्वाबों में मुलाकातें नहीं होती, तुम्हारा मुझको बेवजह कहना, मेरा तुमको बेवजह सुनाना, इन सबमें एहसासें खो गयी हैं।
वो एहसासों को सीने से लगा, भावों के महक को सांसो मे बसा, खत तकिये के नीचे छुपा, सुकूं से कट जाने वाली रातें, कहीं गुम गयी है। जब से वो चिट्ठी खो गयी है..... जब से वो चिट्ठी खो गयी है....
Comments